महाशक्तियों को भारत से अधिक आया पसीना

महाशक्तियों को भारत से अधिक आया पसीना

आलोक मेहता

पश्चिम के प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं रहा, न ही वामपंथी विचारधारा का असर रहा। इसके विपरीत जर्मनी में तीन साल काम किया और भारत में रहकर भी विदेशी मीडिया के लिए कुछ काम करता रहा। दुनिया के लगभग 40 देशों की यात्रा के अवसर भी मिले और यूरोप - अमेरिका की यात्राएं कई बार की। निकटस्थ परिजन भी उन देशों में है। दूसरी तरफ भारत देश की समस्याओं और चुनौतियों को निरंतर देखने समझने और अपना आक्रोश व्यक्त करने में भी कमी नहीं रही। फिर भी वियतनाम युद्ध  और  अफगानिस्तान में सोवितयत संघ के प्रभुत्व के वर्षों बाद भी अमेरिका की विफलता से अधिक कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में यूरोप तथा अमेरिका की कमजोरियों एवं विफलताओं से यह संतोष करने में गौरव भी महसूस होता है कि भारत बहुत हद तक आत्म निर्भरता की तरफ आगे बढ़ रहा है। इस सन्दर्भ में दुर्भाग्य से पश्चिम के मीडिया को आदर्श और अवतार की तरह समझने वाले वर्ग को अमेरिका, ब्रिटैन और अन्य यूरोपियन देशों के टी वी समाचार चैनलों तथा प्रमुख प्रकाशनों की कमजोरियों पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए।

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दूसरे विश्व युद्ध से लेकर भारत में इमरजेंसी के युग और उदार अर्थ व्यवस्था के वर्तमान दौर तक राजनीतिक सत्ताधारी या प्रतिपक्ष एवं प्रबुद्ध वर्ग या पश्चिम की चमक से प्रभावित मध्यम वर्ग का एक हिस्सा विदेशी मीडिया को बहुत महत्वपूर्ण मानता रहा है। आजादी से पहले मज़बूरी थी और भारत के प्रमुख अंग्रेजी अख़बार ब्रिटिश हाथों में थे। आज़ादी के बाद भी उनका असर बना रहा। इमरजेंसी में इंदिरा गाँधी ने पश्चिम के प्रमुख मीडिया संस्थानों को पूर्वाग्रह तथा जासूसी के आरोपों में बहार कर दिया, वहीँ भारतीय मीडिया में सेंसर होने से लोग बी बी सी और अन्य विदेशी समाचार स्रोतों पर निर्भर रहने लगे। प्रतिपक्ष की आवाज बनने के कारण जनता पार्टी की 1977 की सरकार से मनमोहन सिंह की सरकार तक पश्चिम के मीडिया तथा भारत के दिल्ली केंद्रित अंग्रेजी मीडिया को जरुरत से ज्यादा अहमियत मिलती रही।

बहरहाल वर्तमान दौर में न्यूयार्क टाइम्स जैसे अमेरिकी प्रकाशन या बी बी सी जैसे पश्चिमी देशों के प्रसारण संस्थान भारत के मीडिया को सत्ता की कठपुतली और लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा कोरोना संकट में गरीबों के पलायन में अव्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों गड़बड़ियों, कभी सत्तारूढ़ हिन्दू पार्टी द्वारा मुस्लिमों के साथ ज्यादतियों, जम्मू कश्मीर में 370 हटाने और कुछ नेताओं के नजरबन्द रखने की ख़बरों और टिप्पणियों को अधिकाधिक उछाल रहे हैं। सबसे मजेदार बात यह है कि यह सामग्री भी वह यहीं सरकार से असंतुष्ट अथवा नक्सल और अतिवादी संगठनों से संपर्क सहानुभूति रखने वाले कुछ कथित पत्रकारों - अभियानकर्ताओं से जुटाते हैं। फिर वही लोग उन विदेशी मीडिया को उद्धृत करके भारत में उछालते हैं। लोकतत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वाधिक दुरूपयोग स्वार्थी एवं विदेशी तत्व ही उठाते हैं। भारत में यही लोग कभी यह नहीं देखते कि कोरोना में ब्रिटिश, इटली और अमेरकी  सरकार के निकम्मेपन और स्वास्थ्य सेवाओं की बुरी हालत पर बी बी सी टेलेविज़न की वर्ल्ड सर्विस या अमेरिकी मीडिया में कितनी ख़बरें और प्रतिपक्ष के नेताओं - समाज के ठेकेदारों की कितनी टिप्पणियां आ रही हैं। इन दिनों घर बंदी के आदेशों का पालन करने के कारण मुझे भी सामान्य दिनों से अधिक लगातार ब्रिटिश, अमेरिकी, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान जैसे देशों के अंग्रेजी प्रसारण देखने सुनने का अवसर मिला है। आश्चर्य तब होता है, जबकि लंदन और ब्रिटैन में कोरोना के भयंकर प्रकोप तथा निरंतर मौत की संख्या बढ़ने के बावजूद पिछले चार दिनों में बी बी सी वर्ल्ड सर्विस टी वी पर स्पेन, अमेरिका, इटली की ख़बरों को प्रमुखता मिलती रही और लंदन का हाल संक्षेप में चौथे नंबर पर मिलता रहा। कहने को यह स्वायत्त संस्थान माना जाता है। लेकिन रूस या चीन की सरकारें तो इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए यहाँ तक कहती हैं कि विश्व इनका उपयोग गुप्तचर एजेंसियां करती रही हैं। कुछ अर्से पहले कांग्रेस के कई नेता भी यही आरोप ब्रिटिश - अमेरिकी मीडिया पर लगाते थे, लेकिन अब प्रतिपक्ष में उन्हें भारतीय मीडिया के बजाय पश्चिम का मीडिया अच्छा लगता है।

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प्रतिपक्ष  अतिवादी संगठनों के लोग ही नहीं मीडिया का एक वर्ग भी भारतीय मीडिया को सत्ता से आतंकित या भक्त होने का आरोप लगाते हैं। इसके लिए भी "महान" न्यूयार्क टाइम्स का हवाला ऐसे दिया जाता है मानो वही देव वाणी है, चीन या पाकिस्तान में भारत विरोधी प्रचार को भी महत्व देने में संकोच नहीं किया जाता। कश्मीर को आज़ाद करने या नक्सलियों को सही ठहराने वाली लेखिका या पत्रकार को गद्दार न सही गलत कहने में भी मीडिया के एक प्रबुद्ध वर्ग को कष्ट होता है। इससे जुड़ा अहम मदद यह है कि क्या दिल्ली का अंग्रेजी मीडिया ही असली भारत की छवि दे सकता है। क्या लोकमत, मलयाला मनोरमा, सन्देश, इनाडु, कन्नड़ प्रभा, पंजाब केसरी, भास्कर, असम का पूर्वोदय, आनंद बाजार पत्रिका जैसे अखबार या भारतीय भाषाओँ के टी वी चैनल गंभीरता से जन समस्याओं को उठाकर केंद्र और राज्य सरकारों पर तीखी टिप्पणियां नहीं देते? यदि कोई गहराई से तथ्यों का अध्ययन करे, तो यह साबित होगा कि उन्होंने अधिक धारदार, खोजपूर्ण एवं निर्भीक पत्रकारिता की है। मीडिया के पुरस्कारों की चयन समितियों में कई वर्षों से जुड़े होने के कारण और विभिन्न क्षेत्रों के सम्पादकों, पत्रकारों से संपर्क रहने से मुझे यही महसूस होता है कि वहां दिल्ली से अधिक कठिनाइयों और दबाव के बावजूद अधिक अच्छा काम हो रहा है। लेकिन क्या आपने देखा है दिल्ली का राष्ट्रीय मीडिया कहलाने वाले अंग्रेजी मीडिया ने ईमानदारी से उनके काम का श्रेय देते हुए महत्व दिया है? सरकारों के विज्ञापन का अधिकांश हिस्सा दिल्ली को मिल जाता है और सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं के मीडिया को चालीस प्रतिशत से कम हिस्सा मिलता है। यहां भी मुझे अमेरिका के स्थानीय क्षेत्रीय अख़बारों की तारीफ करना आवशयक लगता है। न्यूयार्क और वाशिंगटन से दूर उत्तर कॉर्लिना या केलिफोर्निया के अखबारों ने अश्वेतों तथा हिस्पैनिक लोगों की समस्याओं को उठाने, उनके अधिकार सुविधाएं दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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हाल के महीनों में चीन से कोरोना की महामारी फैलने पर भारत या पश्चिमी मीडिया ने बहुत कुछ लिखा, दिखाया, लेकिन चीन या रूस ने बहुत नियंत्रण के साथ सूचनाएं आगे जाने दी | फिर भी यदि चीन या पाकिस्तान में भारत विरोधी कुछ बाते मीडिया में सामने आई तो भारतीय अभियानकर्ता उसे जोर शोर से उठाने लगते हैं। आख़िरकार आजादी के 73 साल बाद भी विदेशी सामान की तरह विदेशी मीडिया को श्रेष्ठ मानकर गुलामी मानसिकता का परिचय देते रहेंगे? लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब केवल बुराई देखना नहीं उसमें सुधार के लिए हरेक को अपना योगदान देने का है।

 

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